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स्वार्थ में सेवा व भक्ति मत करो, निष्काम भाव से सेवा व भक्ति करो- संत श्री पारसमुनिजी

महावीर अग्रवाल 
मन्दसौर १० जुलाई ;अभी तक;  जैन धर्म में धर्म की जो व्याख्या की गई है वह व्यापक है। जैन आगम आचरण सूत्र मंे प्रभु महावीर ने कहा कि धर्म बारह नहीं धर्म तुम्हारे भीतर में अर्थात आत्मा में है। आत्मा व धर्म कभी पृथक नहीं होते। धर्म आत्मा का स्वाभाविक रूप है। जिस प्रकार पानी का स्वभाव शीतलता है, पानी कुछ समय के लिये कठोर या उष्ण तो बन सकता है लेकिन आता वापस अपने सरल स्वभाव में ही है। उसी प्रकार धर्म आत्मा का गुण है, आत्मा का स्वभाव है, इसलिये धर्म को बाहर मत ढूंढो उसे भीतर में पहचानों।
                                 उक्त उद्गार परम पूज्य आचार्य श्री विजयराजजी म.सा. के आज्ञानुवर्ती शिष्य श्री पारसमुनिजी ने नवकार भवन शास्त्री कॉलोनी में आयोजित धर्मसभा में कहे। आपने सोमवार को धर्मसभा में कहा कि पापकर्म के कारण हमार आत्मा कुछ समय के लिये भले ही मलिन बन जाये लेकिन उसे धर्म के पथ पर आना ही पड़ता है। जब मनुष्य पूण्य कर्म करता है तो आत्मा पुनः आत्मशुद्धि का मार्ग की ओर अग्रसर होती है। इसलिये धर्म आत्मा का स्वभाव है मनुष्य अपने इस स्वभाव को पहचाने।
                                स्वार्थ से की गई सेवा फल नहीं देती- पारसमुनिजी ने कहा कि सेवा को ही कुछ लोग धर्म मानते है लेकिन सेवा किस उद्देश्य से की जा रही है यह प्रश्न महत्वपूर्ण हैं यदि सेवा का उद्देश्य धन कमाना या नाम कमाना है तो ऐसी सेवा आत्मशुद्धि नहीं कर सकती और इसे हम धर्म नहीं कर सकते। सेवा के उद्देश्य से ही आपको फल प्राप्त होगा।
                                      स्वार्थ से भक्ति मत करो- पारसमुनिजी ने कहा कि भक्ति दो प्रकार की होती है। स्वार्थ के कारण की जाने वाली भक्ति और निस्वार्थ भक्ति। प्रभु की भक्ति में हमारा कोई स्वार्थ न हो। प्रभु का नाम स्मरण करे लेकिन स्वार्थ भावना से नहीं। निष्काम भावना से की गई भक्ति कर्म निर्जला का कारण बनती है। धर्मसभा में अभिनवमुनिजी एवं दिव्यमुनिजी भी विराजित थे। धर्मसभा में बड़ी संख्या में धर्मालुजनों ने संतों के अमृतमयी वाणी का धर्मलाभ लिया।
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