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मोह का अंधकार भगाने के लिए धर्म का दीप जलाना होगा

महावीर अग्रवाल

मन्दसौर  १४ नवंबर ;अभी तक;  जिस प्रकार एक नन्हा सा ‘दीपक’ अपने ‘उद्यम; से रात्रि के घोर अंधकार को चुनौती देता है, उसी प्रकार हम सभी अपने सद्गुणों के प्रकाश से अपने समाज और राष्ट्र को आलोकित करते रहें। दीपावली की असंख्य दीपमालिकाएँ हम सभी के जीवन के विकारों और तृष्णाओं को नष्टकर शुभ,यश,कीर्ति और आरोग्यता का संचार करें। दीपावली का पर्व भारतीय संस्कृति के गौरव का प्रतीक है। दीपावली का उत्सव अंधकार के विरुद्ध उजाले की उम्मीद का पर्व है,अंधकार कैसा भी हो और कितना भी घना क्यों न हो प्रकाश की एक किरण के आते ही उसके आगे ठहर नहीं पाता है। दीपावली मनाने की सार्थकता तभी है जब भीतर का ‘अंधकार’ दूर हो, अंधकार जीवन की ‘समस्या’ है और प्रकाश उसका ‘समाधान’ है।

प्रारम्भ से ही मनुष्य की खोज प्रकाश को पाने की रही है। प्रकाश हमारी सद्-प्रवृत्तियों का, सद्ज्ञान का, संवेदना एवं करुणा का, प्रेम एवं भाईचारे का, त्याग एवं सहिष्णुता का, सुख और शान्ति का, ऋद्धि और समृद्धि का, शुभ और लाभ का, श्री और सिद्धि का अर्थात दैवीय गुणों का प्रतीक है। यही प्रकाश मनुष्य की अंतर्चेतना से जब जागृत होता है, तभी इस धरती पर ‘सतयुग’ का अवतरण होने लगता है। प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर एक अखण्ड ज्योति जल रही है,,उसकी लौ कभी-कभार मद्धिम जरूर हो जाती है, लेकिन मृत्यु होने तक बुझती नहीं है। उसका प्रकाश ‘शाश्वत’ प्रकाश है। वह स्वयं में बहुत अधिक शक्तिशाली है,, इसी संदर्भ में कबीरदासजी का एक दोहा है कि ‘बाहर से तो कुछ न दिखे भीतर जल रही जोत’ यानी दीपावली का यह पर्व ‘ज्योति‘ का पर्व है। दीपावली का पर्व ‘पुरुषार्थ’ का पर्व है, यह ‘आत्म-साक्षात्कार’ का पर्व है, यह अपने भीतर सुषुप्त चेतना को जगाने का अनुपम पर्व है,, हमारी ‘सभ्यता’ एवं ‘संस्कृति’ की गौरव गाथा का पर्व है, प्रत्येक भारतीय की रग-रग में यह पर्व रच-बस गया है,। इसी प्रकार जो महापुरुष उस भीतरी ज्योति तक पहुँच गए, वे स्वयं ‘ज्योतिर्मय’ बन गए जो अपने भीतरी ‘आलोक’ से ‘आलोकित’ हो गए,वे सबके लिए आलोकमय बन गए। जिन्होंने भी अपनी भीतरी शक्तियों के स्रोत को जगाया वे अनन्त शक्तियों के स्रोत बन गए और जिन्होंने अपने भीतर की दिवाली को मनाया,लोगों ने उनके उपलक्ष्य में दिवाली का पर्व मनाना प्रारम्भ कर दिया।
यह अटल सत्य  है कि मनुष्य का रूझान हमेशा प्रकाश की ओर ही रहा है, अंधकार को उसने कभी न चाहा न कभी माँगा, ‘तमसो मा ज्योतिगर्मय’ भक यद्यपि लोकमानस में दीपावली एक सांस्कृतिक पर्व के रूप में अपनी व्यापकता सिद्ध कर चुका है। फिर भी यह तो मानना ही होगा कि जिन ऐतिहासिक महापुरुषों के घटना प्रसंगों से इस पर्व की महत्ता जुड़ी है वो अध्यात्म जगत के शिखर पुरुष थे, इस दृष्टि से दीपावली पर्व लौकिकता के साथ-साथ ‘आध्यात्मिकता’ का अनूठा पर्व है। हमारे भीतर अज्ञान का तमस छाया हुआ है। वह ज्ञान के प्रकाश से ही मिट सकता है। ज्ञान के प्रकाश की आवश्यकता केवल भीतर के अंधकार, मोह-मूर्छा को मिटाने के लिए ही नहीं, अपितु लोभ, आसक्ति, पर्यावरण,प्रदूषण और अनैतिकता जैसी बाहरी समस्याओं को सुलझाने के लिए भी अति आवश्यक है।
   (डॉ कमल संगतानी )

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